जैनाचार्य विद्यासागर जी के चिरनिंद्रा लीन होने  से जैन अनुयायियों के आंसू छलक पड़े 

    * जैन मंदिर में हुई श्रद्धांजलि सभा       *श्रमण संस्कृति का हुआ सूर्य अस्त।      * जैन समाज  के प्रतिष्ठान रहे बंद,  निकाली  गई पालकी

   फोटो:- आचार्य विद्यासागर जी महाराज के निधन से दुखी जैन समाज के लोग पालकी यात्रा निकालते हुए, दूसरी फोटो में मंदिर के गेट पर श्रद्धांजलि देते हुए
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जसवंतनगर(इटावा)। इस युग के महावीर के रूप में ख्यातिप्राप्त सन्त शिरोमणि आचार्य श्री श्री १०८ श्री विद्यासागर जी महाराज द्वारा संलेखना धारण कर मोक्ष मार्ग की ओर  बढ़ गए अर्थात चिरनिंद्रा में लीन हो गए।
    उनके निधन की  खबर सुनते ही  पूरे देश के साथ ही जसवंतनगर जैन समाज शोक में डूब गया।जैनानुयाईयों ने अपने प्रतिस्ठान बंद रखे। णमोकार मंत्र का पाठ करते आचार्य श्री108 विद्यासागरजी  मुनिराज की पालकी यात्रा नगर में निकाली, जो पूरे नगर की प्रमुख  सड़कों  भृमण की। 
      भ्रमण के दौरान नगर में प्रवास कर रहे   आचार्य आदित्य सागर जी महाराज भी पालकी यात्रा के साथ चले। उनके चेहरे से शोकाकुलता साफ झलक रही थी।
      जैन अनुयायी णमोकार मंत्र का मनन करते हुए चल रहे थे। यह पालकी यात्रा पार्श्वनाथ दिगंबर जैन मंदिर से  आरंभ हुई।, जो   नगर के छोटे चौराहा,  दिगंबर जैन मंदिर, पंसारी बाजार, लोहामंडी, होते हुए जैन बाजार पर संत निवास पर सम्पन्न हुई। 
     देर शाम लुदपुरा जैन समाज की महिलाओं ने लुदपुरा और टीचर्स कॉलोनी में आचार्य जी के चित्र के साथ नमोकार मंत्र का गुंजायन करते हुए आचार्य विद्यासागर की  स्मृति में शोक मार्च निकाला।
        जैन मंदिर स्थित संत निवास पर विनयांजलि सभा का आयोजन हुआ, जिसमें आचार्य आदित्य सागर महाराज ने अपने उद्बोधन में कहा कि जैन धर्म में समाधि मरण करने वाला प्रत्येक जीव मोक्ष का अधिकारी हो जाता है। 
     एक साधु के जीवन के सम्पूर्ण साधना का फल होता है,” समाधी”। !… हम सभी को भी  संयममय जीवन जीकर अपना मोक्ष मार्ग प्रसस्त करना चाहिए।
   आपको बता दे कि राष्ट्रहित चिंतक परम पूज्य  विद्यासागर जी महाराज ने  ने विधिवत सल्लेखना बुद्धिपूर्वक धारण करली थी। 
    पूर्ण जागृतावस्था में उन्होंने आचार्य पद का त्याग करते हुए 3 दिन तक उपवास करते हुए आहार एवं संघ का प्रत्याख्यान कर दिया था।  प्रत्याख्यान व प्रायश्चित देना बंद कर दिया था।  अखंड मौन धारण कर अंतिम समय मे ॐ उच्चारण के साथ समाधि को वरण किया। वर्तमान में गुरुदेव चंद्रगिरी तीर्थ डोगरगढ़ छत्तीसगढ़ में विराजमान थे।अस्वस्थता की स्थिति में उन्होंने उपचार न कराते हुए समाधिमरण धारण करते हुए मोक्ष को प्राप्त किया।
 उनका बचपन का नाम विद्याधर था। कठिन साधना का मार्ग पार करते हुए उन्होंने  मात्र 22 वर्ष की उम्र में सन 1968 को अजमेर में आचार्य ज्ञानसागर महाराज से मुनि दीक्षा ली थी। 1972 में अजमेर में ही उन्हे आचार्य की उपाधि देकर उन्हें मुनि विद्यासागर से आचार्य विद्यासागर बना दिया। आचार्य पद की उपाधि मिलने के बाद आचार्य विद्यासागर ने देश भर में पदयात्रा की। चातुर्मास, गजरथ महोत्सव के माध्यम से अहिंसा व सद्भाव का संदेश दिया।   उन्हे संस्कृत व प्राकृत भाषा के साथ हिन्दी, मराठी और कन्नड़ भाषा का भी विशेष ज्ञान था।  हिन्दी और संस्कृत में कई रचनाएं भी लिखी हैं। इतना ही नहीं पीएचडी व मास्टर डिग्री के कई शोधार्थियों ने उनके कार्य में निरंजना शतक, भावना शतक, परीग्रह जाया शतक, सुनीति शतक और शरमाना शतक पर अध्ययन व मूक माटी पर शोध किया है।
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