सरस्वती के रूप में प्रचलित है बसंत पंचमी का पर्व
इटावा। बसंत पंचमी का त्योहार आदिकाल से ही परंपरागत रूप से मनाया जा रहा है। यह पर्व साहित्य, संगीत और कला की देवी मां सरस्वती को समर्पित है। यह त्योहार हिंदू पंचांग कैलेंडर के अनुसार माघ मास की शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को पड़ता है। जो सर्दियों के समापन और वसंत ऋतु के आगमन का प्रतीक है। विश्वभर में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां वर्ष भर में छरू ऋतुयें पाई जाती हैं और इनमें बसंत रितु सर्वाेपरि है।
यह बात भगवानदास शर्मा प्रशांत ने कही। उन्हांेने कहा कि बसंत ऋतु का आगमन होते ही सारी सृष्टि और प्रकृति मुस्कुराने लगती है। प्रकृति रूपी माता अपने नए रूप में श्रृंगार करने लगती है। सभी पेड़ पौधों पर नव पल्लवन कोपलें, आम पर बोर आने लगते हैं। सभी पशु पक्षी जीव जंतु हर्षित होने लगते हैं, कोयलें गाने लगती हैं। बच्चे चहकने के लगते हैं। पेड़ पौधों पर पुष्प पुष्पित और पल्लवित होकर खिलने लगते हैं। मलयगिरि से आने वाली सुगंधित हवा चारों ओर आनंदित करने लगती है। यह मौसम बहुत ही सुहावना और मनभावन होता है इसलिए साहित्यकारों कवि और विद्वानों ने इसे ऋतुराज भी कहा है। मां सरस्वती विद्या की देवी है अतः सभी छात्र-छात्राओं को बसंत पंचमी के दिन पीले वस्त्र धारण कर मां सरस्वती को पीले पुष्प और पीले चावल, पीली मिठाइयों से भोग लगाकर पूजा और आराधना कर मां का आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए। छात्र-छात्राओं को सिद्धि मंत्र या देवी सर्वभूतेषु, विद्या रुपेण संस्थिता। प्राचीन काल में वैदिक रीति रिवाज से बसंत पंचमी के दिन मां सरस्वती की आराधना करके बच्चों का उपनयन संस्कार होता था। तत्पश्चात बच्चे गुरुकुल में शिक्षा दीक्षा ग्रहण करने जाते थे। इस त्योहार में बच्चों को हिंदू रीति रिवाज के अनुसार अपने पहले शब्द ओम या राम को लिखना सिखाया जाता है। हिंदू मान्यताओं के अनुसार मां सरस्वती और मां लक्ष्मी दोनो का प्रादुर्भाव बसंत पंचमी के दिन ही हुआ था जो सभी देवी देवताओं की आराध्य भी है। इसलिए इस तिथि को श्री लक्ष्मी और ज्ञान पंचमी भी कहा जाता है।