जैन मुनियों और छुल्लकों  की दुष्कर जीवन वृत्ति के दौरान आहारचर्या “विस्मय कारी”

    *आराध्य जैन के घर "आदित्य सागर" की आहार चर्या का दर्शन   *छुल्लक  "प्रार्थना सागर" का प्रथम आहार

  फोटो:- आराध्य जैन तथा अन्य जैन श्रावक मुनि आदित्य सागर जी महाराज को आहार देते
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     जसवंतनगर (इटावा)। जैन धर्म को अहिंसा और संयम  की वजह से पूरी दुनिया में सर्वश्रेष्ठ धर्मों में गिना जाता है । कोई भी जैन अनुयाई नित्य प्रति मंदिर  जाना नहीं  चूकता। जैन धर्म में आचार्य और मुनिराजों , छुल्लकों और ब्रह्मचारियों का स्थान न केवल महत्वपूर्ण है बल्कि वह भगवान के प्रतिरूप माने जाते हैं।
     
जैन मुनियों द्वारा वस्त्र त्याग जीवन काल में काफी दुष्कर होता है इसके अलावा उनकी जीवन चर्या भी काफी कठिन होती है। गर्मी बरसात और भीषण ठंड भी उन्हे उनके पाठ से नहीं डिगा  पाती। वह आचार्य और मुनि की दीक्षा के बाद 24 घंटे में एक बार  भोजन ग्रहण करते हैं, वह भी बड़ी ही विधि अनुसार होता है।
       
मंगलवार को जसवंत नगर में प्रवास कर रहे जैन मुनि आचार्य आदित्य सागर जी महाराज की आहार  चर्या  के दर्शन करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। विधि अनुसार वह यहां के सुनाम धन्य जैन अनुयाई शिवकांत जैन आराध्य जैन के घर आहार चर्या पूरी करने पधारे थे। 
      यह परिवार आचार्य श्री द्वारा उनके घर पर आहार ग्रहण करने की क्रिया को सौभाग्य एवं पुण्योदय के उदय के रूप में स्वीकार रहे थे। परम पूज्य अध्यात्म योगी आचार्य “आदित्य सागर” जी महाराज एवं नव दीक्षित  छुल्लक “प्रार्थना सागर” जी महाराज का प्रथम आहार नवदा भक्ति पूर्वक  उनके यहां संपन्न हुआ। 
     आराध्य जैन ने मुनियों की आहार चर्या के बारे में विस्तार से जानकारी देते बताया कि जैन मुनि की आहारचर्या अचंभित करने वाली होती है। इनके कठोर नियमों के चलते कई दिनों तक इन्हे उपवास(भूंखा)भी रहना पड़ता है। जैन मुनि २4 घंटे में सिर्फ एक बार भोजन और पानी पीते हैं।
     इसका भी अपना तय समय है। यदि उन्हें निश्चित धारणा नहीं मिलती है, तो वैसे ही वापस लौट जाते हैं। इनकी आहारचर्या इनकी साधना का अहम हिस्सा है। यह स्वाद के लिए भोजन नहीं करते हैं। यह धर्म साधना के लिए भोजन करते हैं। यह साधना आम इंसान के लिए काफी कठिन होती है। 
   जैन साधु जब आहार के लिए निकलते है, तो विधि (नियम) लेकर निकलते हैं। पडग़ाहन में श्रद्धालुओं द्वारा शब्दों का उच्चारण किया जाता है। उस दौरान श्रद्धालु मतलब श्रावक के पास नारियल, कलश, लौंग होने का नियम लिया जाता है। नियम के अनुसार ये वस्तु नहीं दिखने पर बिना आहार लिए आ जाते हैं। 
    उसके बाद दूसरे दिन फिर वहीं नियम के साथ आहार (भोजन) के लिए वापस निकलते है। यदि नियम नहीं मिलता है, आहार के लिए उस घर में प्रवेश नहीं करते हैं। फिर अगले दिन का इंतजार किया जाता है। 
      एक जैन  मताबलम्बी द्वारा बताया गया है कि  एक जैन आचार्य महाराज ने एक बार मंदिर जी में दर्शन करने के बाद अपने मन में आहार चर्या के लिए, जो नियम लिया, वह नियम था कि उन्हे “कोई  बैल या गाय के सींग पर सरसों का फूल लगा किसी जैन श्रावक के द्वार पर दिखे”।
     यह नियम काफी दुष्कर था।  कई दिनों तक विधि न मिलने के कारण आचार्य श्री उपवासी(भूखे)  ही रहे। उसके बाद एक दिन आहार  को  जब वह निकले, तो उसी दौरान एक मंडी से गुजरती गाय ने  गुड़ मंडी में गुड़ की भेली में अपने सींग मारे, जिससे उसके  सींगों में गुड चिपक गया । गुड  चिपकाए गाय जैसे ही आगे  बढ़ी उसकी  एक किसान ,जो अपनी सरसों की फसल काट कर ला रहा था, जिसमें सरसों के फूल भी थे। उससे वह टकरा गई और उसके  सींगो में सरसों के फूल चिपक गए।
     यह  गाय मंडी से  सीधी  सींगों में सरसों के फूल चिपकाए  उस जैन श्रावक के द्वार पर जाकर  खड़ी  हो गई, जहां  मुनि आचार्य जी महाराज आहार चर्या के लिए  आने वाले थे।गाय के सींगों पर सरसों के फूल  लगे होने और यह सब देखने से कई दिन बाद महाराज जी अपनी आहारचर्या पूरी कर सके।
          जैन धर्म ग्रंथों के अनुसार  साधु की आहार चर्या को सिंहवृत्ति कहते हैं। साधु एक ही स्थान पर खड़े होकर दोनों हाथों को मिलाकर अंजुली बनाते हैं, उसी में भोजन करते हैं। यदि अंजुली में भोजन के साथ चींटी, बाल, कोई अपवित्र पदार्थ या अन्य कोई जीव आ जाए, तो उसी समय भोजन लेना बंद कर देते हैं। अपने हाथ छोड़ देते हैं। उसके बाद पानी भी नहीं पीते है। इस विधि से भोजन करने से साधु की भोजन के प्रति आसक्ति दूर होती है। जैन साधू खड़े होकर, बिना किसी पात्र के, अपने हाथो से ही भोजन लेते हैं. किसी भी बर्तन में नहीं लेते।
        आचार्य आदित्य सागर जी महाराज और क्षुल्लक प्रार्थना सागर जी की मंगलवार की आहार चर्या के दौरान शिवकांत जैन, आराध्य जैन, अमिता जैन, अर्चना जैन, मनोज जैन, मोनिका बजाज, सरोज जैन, मोहित जैन, निकेतन जैन, अमित जैन, लता जैन, वीना जैन, सुधा जैन आदि को आहार देने का सौभाग्य हासिल हुआ।
– वेदव्रत गुप्ता 
  
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