निपटा दो दहशतगर्दी का मेला
रोज रोज खून बह रहा, केसर की केसरिया क्यारी में। दहशतगर्द घूम रहे हैं नित, घाटी दहलाने की तैयारी में।
नाम बदलते हैं मौतों के केवल, रोज खून लाल ही बहता है। घाटी का वाशिंदा घुट घुट, अपनों की मौतों को सहता है।
कश्मीरी पंडित दिन काट रहे, घर बार छोड़कर शिविरों में। अपने देश में ही हुए हैं बेगाने, भविष्य लटक रहा है अंधेरों में।
सरकारें गाल बजातीं केवल, कहती अमन चैन हम ले आये। भाषण देते मंचों पर ऐसे, जैसे और किसी ग्रह से हों आये।
देखो आंखों से रोज हकीकत, सरकार स्वप्न में जीना छोड़ो। कश्मीरी पंडित के संग बहुत हुआ, अब कड़े कदम कहना छोड़ो।
कब तक मंचों से बोलोगे झूठ, कब तक तुम सत्य छुपाओगे। आज मुझे बता दो देश मेरे, घाटी में कब शांति ले आओगे।।
नहीं चाहिए मुझे कोई आंकड़े, न उसने किया, का खेला। अपनी जिम्मेदारी आप निभाओ, निपटा दो दहशतगर्दी का मेला।
दहशतगर्दों में दम है क्या, किसी व्यवस्था से पा जाएं पार। इच्छाशक्ति अगर हो ऊंची, दुश्मन जीती बाजी जाता हार।
बात – बात करते हैं बीते, देश के पचहत्तर साल। जीवन न बदला कश्मीरी का, खून से कण कण है लाल।।
– हरी राम याद