वह बातों का दौर कुछ और था

*वह बातों का दौर कुछ और था*

वह बातों का दौर कुछ और था,
जब लोग बात पर मिट जाते थे।
अब बातों का दौर कुछ और है,
लोग बोलकर चुनावी कह जाते हैं।

कभी मर्द की बात का मुहावरा,
घूमता था मूंछें ऊपर तान।
अब तो बेचारा खोज रहा,
छुपने के लिए स्वयं बितान।।

बात और मूंछ का कभी,
समाज में था बहुत सम्मान।

जो लाज रखते इनकी,
उनका होता था जय गान।

बातों में न अब दम रहा।
न मूंछों में बची अब ताव ।
मूंछें तो अब नाक को ही,
दे रहीं गजब करारे घाव ।

बेंच करके बात को लोग,
अपनी जमीन तलाश रहे ।
स्वंय जो न कर पाए वह,
बात की बेंच से नाप रहे।

तात की बात की लाज रख,
बन को निकल गये थे अवधेश।
अब पिता की बेंची जमीन को,
बेंच रहे धारे सज्जन वेष।।

‌ – हरी राम यादव
7087815074

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