पंचकल्याणक मे चौथे दिन नेमिनाथ को हुआ केवल ज्ञान

फोटो:- नेमीनाथ जी आचार्य आदित्य सागर के स्तर पर विराजित होकर आहार को जाते हुए। समवसरण में विराजित आचार्य
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जसवंतनगर(इटावा)। पंचकल्याणक महोत्सव के चतुर्थ दिन आज नेमिनाथ भगवान को केवलज्ञान प्राप्त हुआ।
     नित्य नियम कार्यक्रमों के तहत बुधवार सुबह अभिषेक शांतिधारा ,पंचकल्याणक विधान यज्ञ, जाप अनुष्ठान, आहुतियों के साथ संगीतमय बाल ब्रह्मचारी और  प्रतिष्ठाचार्य अक्षय शास्त्री के सानिध्य में आयोजित किए गए।
 आचार्य आदित्य सागर जी महाराज ने अपने प्रवचनों में कहा कि दान की महिमा अपरंपार  है। दान से दरिद्रता नष्ट होती है। आहार दान सभी दानों में सर्वोच्च है। अतः अपने आस पास  के दीन – दुखी को अवश्य ही भोजन कराएं, कमजोर को जो हो सके वह दान दे।  आपके  नगर में यदि कोई  दिगम्बर मुनि आये तो उनका चौका जरूर लगाएं। नवधा भक्ति कर उनको आहार कराए। अपने जीवन मे प्रतिक्षण दान की भावना रखने  से आत्मा का कल्याण होता है। 
   
प्रवचन के बाद नेमिकुमार महाराज जो कि राज- पाठ और परिवार का परित्याग कर चुके हैं। वह  आहार के लिए आदित्य सागर महाराज के साथ निकले । आचार्य श्री विधिनायक नेमिनाथ भगवान की प्रतिमा को अपने मस्तक पर धारण करके जैन मुहल्ले की गलियों से जब निकले, तब समूचे समाज के लोग अपने अपने घरों के बाहर सुंदरतम रंगोली बनाकर व गुब्बारे से पूरे नगर को सजाते हुए हे स्वामी नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु हे स्वामी नमोस्तु नमोस्तु नमोस्तु अत्रो अत्रो तिष्टि तिष्टि पुकार कर निवेदन कर त्रिलोकी नाथ  को अपने  अपने घर में आहार करने  निवेदन करते है।
     
विधि अनुसार आहार कराने का सौभाग्य रवि- अमन जैन परिवार को मिला। जिज्ञासु श्रावक श्रेस्ठी अनीता जैन ने प्रश्न किया… “हे गुरुदेव भावना भा कर भी धर्म कार्य मे दान न दे पाना क्या कारण है?
गुरुदेव ने इस प्रश्न के जवाब में  कहा- ‘अंतराय कर्म के कारण ऐसा होता है।दान दे नही सकते तो भी कोई बात नही लेकिन भावना सदैव भानी चाहिए!’
चार गति और चौरासी लाख योनि में घूमने के बाद मनुष्य पर्याय प्राप्त हुई होती है।इसका दुरूपयोग न कर भगवत कार्यो में लगाएं।  
       सायं काल मे समवशरण लगा, जिसमे जन-जन के कल्याण की भावना देने वाले भगवान के समवशरण में विराजित आचार्य आदित्य सागर महाराज ने समवशरण की बारे में बताया। 
     
भगवान के समवसरण में सभी ऋतुओ के फल व सुगंधित वातावरण हो जाता है। त्रियांच् देव गति के इंद्र व मनुष्य  जीव आकर अपने कल्याण के लिए भगवन की वाणी को सुन अपना कल्याण करते है। और अभव्य जीव बाहर के आवरण में ही भटकता है। ओर जन्म-जन्म तक भटकता ही रहता है।
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*वेदव्रत गुप्ता
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